Class 10 Hindi Chapter 2 Question Answer and Best Notes

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राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद 

‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ तुलसीदास की रचना रामचरितमानस’ के ‘बालकांड’ का अंश है। इस अंश में सीता स्वयंवर में रामचंद्र द्वारा शिवधनुष भंग किए जाने के पश्चात्‌ परशुराम का अत्यंत क्रोधावस्था में राजा जनक के दरबार में आने और राम-लक्ष्मण के साथ हुए उनके संवाद को प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग की विशेषता है लक्ष्मण की बीर रस से भरी व्यगयोक्तियाँ और परशुराम की क्रोधाभिव्यक्ति।

कवि-परिचय 

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान्‌ इनका जन्म स्थान सोरो (ज़िला एटा) भी मानते है। बचपन में ही इनके माता-पिता ने इनका परित्याग कर दिया था। तुलसीदास जी मानव मूल्यों के उपासक कवि थे। अपने गुरु की कृपा से इन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर इसी मार्ग का अनुसरण करते हुए तुलसी दास ने अपनी लेखनी के द्वारा अपने आराध्य देव मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के माध्यम से नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग जैसे उदात्त आदर्शों को प्रतिष्ठित किया।

रामभक्ति पर आधारित रामचरितमानस इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका इत्यादि इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। अवधी के साथ-साथ ब्रजभाषा पर भी इनका समान अधिकार था। 1623 ई. में काशी में प्रभु राम के इस अनन्य भक्त का देहावसान हो गया।

काव्यांश 1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।

आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।

सेवकु सो जो करे सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।

सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने।

बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।

येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।

दोहा..

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।

धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।

व्याख्या

श्रीराम द्वारा शिवधनुष तोड़ दिए जाने पर उसके टंकार की ध्वनि को सुनकर परशुराम जनक महल में आते हैं और उस धनुष को तोड़ने वाले को दण्ड देने के उद्देश्य से सभा से बाहर बुलाना चाहते हैं। परशुराम को गुस्से से आगबबूला होता देखकर रामचन्द्र जी उनसे कहते हैं कि हे नाथ! धनुष को तोड़ने वाला अवश्य ही आपका कोई दास होगा। मेरे लिए क्‍या आज्ञा है? राम के विनय भरे शब्दों को सुनकर स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी मुनि परशुराम बोले-तुम स्वयं को सेवक कैसे कह रहे हो ? सेवक तो वही होता है, जो सेवा करता है। शत्रुओं का कार्य करके तो दुश्मनी मोल ली जाती है।

जिसने इस शिवधनुष को तोड़ा है वह सहस्तबाहु के समान मेरा प्रबल शत्रु है, इसलिए उसे इस सभा से अलग करके बाहर निकाल दो अन्यथा मेरे द्वारा सभी राजाओं ‘ को मार दिया जाएगा। मुनि परशुराम के ऐसे अहंकार और क्रोध भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कराने लगे। वे परशुराम से अपमानित करने वाले वचन कहने लगे-हे गोसाई जी आप इस एक धनुष के टूट जाने पर इतने क्रोधित क्‍यों हो रहे हो ? हमने तो बचपन में ऐसी बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ दी थीं परन्तु हम पर ऐसा क्रोध कभी भी किसी ने नहीं किया।

इस धनुष पर आपकी इतनी ममता क्‍यों है? लक्ष्मण के मुख से ऐसी बातों को सुनकर भृगुवंश के ध्वज परशुराम कुपित होकर बोले है राजा के बालक ! निश्चय ही तू काल के वश में हो गया है। तभी तू सँभाल कर नहीं बोल रहा। जिस शिवधनुष के विषय में सम्पूर्ण संसार जानता है, उसकी तुलना तू धनुही से कर रहा है? निश्चय ही तू मृत्यु के वश में हो गया है। 

काव्यांश 2 

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। 

का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।। 

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।। 

बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।। 

बालकु बोलि बधों नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।। 

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।। 

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।

सहसबाहुभुज  छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा। 

दोहा

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।। 

व्याख्या

लक्ष्मण से बचपन में तोड़े गए धनुषों के विषय में सुनकर परशुराम कुपित हो जाते हैं तथा लक्ष्मण को काल के वश में मानते हुए धमकाते हैं। लक्ष्मण हँसते हुए कहते हैं कि हे देव! सुनिये हमारे लिये तो सभी धनुष एक समान होते हैं। हमें यह बात समझ में नहीं आ रही कि पुराना, जीर्ण धनुष टूट जाने पर आपको क्‍या हानि एवं लाभ है? भोली आँखों वाले श्रीराम ने तो उसे केवल देखा था धोखे से वह टूट गया। धनुष इतना पुराना था कि छूते ही टूट गया, इसमें श्रीराम का कोई दोष नहों है तो हे मुनि!

आप बेवजह क्रोधित क्‍यों हो रहे हैं? लक्ष्मण के ऐसे वचनों को सुनकर परशुराम क्रोधित होकर. बोले-अरे मूर्ख ! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मेरे इस फरसे की ओर देख। मैं बालक समझकर तेरा वध नहीं कर रहा हूँ और तू मूर्ख मुझे केवल मुनि समझ रहा है,

जो शान्त स्वभाव का सहनशील व्यक्ति होता है। मैं बचपन से ही ब्रह्मचारी हूँ अर्थात्‌ मैंने बचपन से ही नियम-संयम का पालन किया है। मैं प्रचण्ड क्रोधी हूँ तथा क्षत्रियों के कुल का घोर शत्रु हूँ। यह बात विश्व में सब जानते हैं। में अनेक बार अपनी भुजाओं के बल पर सम्पूर्ण पृथ्वी को राजाओं से विहीन कर चुका हूँ तथा पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान कर चुका हूँ। हे राजकुमार ! मेरे फरसे को देख। इसने ही सहस्नबाहु की बलशाली भुजाओं को काट दिया था।

अरे राजा के पुत्र लक्ष्मण! तू मुझसे बहस करके अपने माता-पिता को चिन्तित मत कर। अपनी मृत्यु को आमन्त्रित मत कर। मेरा फरसा बहुत भीषण है। यह गर्भ में पल रहे बच्चों का नाश भी आसानी से कर देता है। अत: इसकी भयंकरता से डर। 

काव्यांश 3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।। 

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।। 

इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछ कहा सहित अभिमाना।

भगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।। 

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।। 

दोहा

फ जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। 

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

व्याख्या

परशुराम के कठोर बचनों को सुनकर लक्ष्मण हँसते हुए कोमल वाणी में बोले-हे मुनिराज परशुराम! आप तो महान्‌ योद्धा हैं, यह बात हम मानते हैं। आप बार-बार मुझे अपना फरसा क्‍यों दिखा रहे हो ? क्या आप फूँक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हो? यहाँ पर कोई छुईमुई के समान निर्बल नहीं है जो आपकी तर्जनी अँगुली देखकर कुम्हला जायेंगे या मर जायेंगे। मैं आपकी इन बातों से डरने वाला नहीं हूँ। है मुनि! आपके हाथ में कुल्हाड़ा तथा धनुष-बाण देखकर मैंने अभिमानपूर्वक कुछ कह दिया।

मुझे लगा कि मेरे सामने कोई वीर योद्धा खड़ा है। आपको भृगुऋषि का पुत्र समझकर तथा आपके शरीर पर जनेऊ देखकर मैंने आपके द्वारा कहा गया सब कुछ सहन कर लिया तथा अपने क्रोध को रोक लिया। है मुनिवर! अपने कुल की परम्परा के अनुसार हम क्षत्रिय देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं दिखाते। आप तो ब्राह्मण हैं।

यदि मुझसे आपका वध हो जायेगा तो मुझे पाप लगेगा और यदि में आपसे हार गया तो मुझे अपयश मिलेगा। अत: यदि आप मुझे मार भी दें तो भी में आपके चरणों में पड़ा रहूँगा। है मुनिवर! अपने कुल की परम्परा के अनुसार हम क्षत्रिय देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं दिखाते। आप तो ब्राह्मण हैं। यदि मुझसे आपका वध हो जायेगा तो मुझे पाप लगेगा और यदि मैं आपसे हार गया तो मुझे अपयश मिलेगा। अतः यदि आप मुझे मार भी दें तो भी मैं आपके चरणों में पड़ा रहूँगा ।

है मुनिराज! आपके मुख से निकले हुए शब्द ही कठोर वज्र के समान हैं। आप बेकार में ही धनुष-बाण और फरसा धारण करते हो। इसलिए इन्हें देखकर यदि मैंने आपसे कुछ अनुचित कह दिया हो तो हे धैर्यवान मुनिवर! आप मुझे क्षमा कर देना। लक्ष्मण के ऐसे व्यंग्य-वचनों को सुनकर भृगवंश के रत्न मुनि परशुराम क्रोधित होकर गंभीर वाणी में बोले।

काव्यांश 4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।

भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।

कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।

तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।

अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।

नहि संतोषु त पुनि कछ कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

दोहा 

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहि आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

व्याख्या

परशुराम विश्वामित्र से कहते हैं कि हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक मूर्ख, कुटिल, मृत्यु के वशीभूत, अपने कुल का नाश करने वाला है। यह सूर्यवंश रूपी चन्द्रमा का कलंक है। यह अति उद्दण्ड, बुद्धिहीन और निडर है। यह अभी एक क्षण में ही मेरे द्वारा काल का ग्रास बन जायेगा। मैं यह बात कह रहा हूँ। बाद में मुझे दोष मत देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो हमारे पराक्रम, बल और क्रोध के विषय में बताकर इसे रोक लो। परशुराम की ये बातें सुनकर लक्ष्मण बोले-हे महामुनि ! तुम्हारे सुयश के विषय में आपके अलावा अन्य कौन वर्णन कर सकता है अर्थात्‌ आपके सुयश के बारे में आपकी छोड़कर कोई दूसरा वर्णन नहीं कर सकता।

आप अपने कर्मों के विषय में अपने मुँह से अनेक बार अनेक प्रकार से स्वयं ही बखान कर चुके हो, इतने पर भी यदि आपको संतोष नहीं हुआ है तो फिर से कुछ वर्णन कर दीजिए। अपने उफनते क्रोध को रोककर असहनीय दुःख को सहन मत कीजिए। आप वीरता की प्रतिज्ञा करने वाले, धैर्यवान एवं क्षोभरहित हैं। गालियाँ देते हुए आप अच्छे नहीं लगते। जो शूरवीर होते हैं वे युद्धभूमि में संग्राम करते हैं। वे अपनी प्रशंसा स्वयं करके अपना परिचय नहीं देते। शत्रु को युद्ध में सामने देखकर केवल कायर ही व्यर्थ में अपने पराक्रम की कथाएँ सुनाते हैं। 

काव्यांश 5 

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेठ कर घोरा।।

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा।।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।। 

उतर देत छोड़ों बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।। 

न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।। 

दोहा

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ। 

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ।। 

व्याख्या

लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं–ऐसा लगता है जैसे आप मृत्यु को मेरे लिए जबरदस्ती हाँक-हाँककर ला रहे हो। लक्ष्मण के इन कठोर व्यंग्य बचनों को सुनते ही परशुराम ने अपने फरसे को सँभालकर हाथ में पकड़ लिया। बोले–अब लोग इस बालक का वध करने के लिए मुझे दोष न दें। कटु वचन बोलने वाला यह बालक वध के योग्य है। मैं इसे बालक समझकर कई बार क्षमा करता रहा, परन्तु अब कोई उपाय नहीं है। अब तो यह केवल मारने के योग्य है। बात बनती न देखकर विश्वामित्र परशुराम से बोले-हे परशुराम! आप तो साधु हैं। साधु पुरुष बालक के गुण-दोषों को नहीं गिनते। परशुराम बोले-मेरे पास तीखी धार वाला बहुत पैना फरसा है।

मैं दयारहित और क्रोधी स्वभाव का हूँ। मेरे समक्ष यह अपराधी और गुरुद्रोही लक्ष्मण खड़ा है जो मुझे जवाब देकर बराबर अपमानित किये जा रहा है। हे विश्वामित्र! मैं केवल तुम्हारी नम्रता के कारण ही इसको बिना मारे अर्थात्‌ जीवित छोड़े दे रहा हूँ। नहीं तो इसको अपने इस कठोर फरसे से यहीं काट डालता तथा थोड़े-से ही परिश्रम से गुरु के ऋण से उऋण हो जाता।

विश्वामित्र मन ही मन में हँसते हुए बोले-मुनि को हरा-ही-हरा दिखाई दे रहा है अर्थात्‌ अन्य सभी स्थानों पर विजय प्राप्त करने के कारण ये राम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय बालक समझ रहे हैं। मुनि अब तक नासमझ बने हुए हैं, वे राम-लक्ष्मण के पराक्रम के प्रभाव को नहीं समझ रहे। ये कोई गन्ने से बनी हुई खाँड नहीं है जो मूँह में डालते ही गल जायेगी, ये लोहे से बनी खाँड़ है अर्थात्‌ उनका व्यक्तित्व लौहमय है। वे निर्भीक, साहसी एवं पराक्रमी हैं।

काव्याश 6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।

माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें।।

सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।

भुगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचों नृपद्रोही।।

मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।

अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।। 

दोहा

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

व्याख्या

लक्ष्मण ने परशुराम से कहा-हे मुनिवर! आपके शील-स्वभाव के विषय में कौन नहीं जानता? अर्थात्‌ इस विश्व में सब आपके शील के विषय में जानते हैं। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो भली-भाँति उऋण हो ही चुके हैं। अब गुरु का ऋण शेष रह गया है। उससे उऋण होने की चिन्ता आपको सता रही है। वही ऋण मानो हमारे सिर पर मढ़ा है।

अधिक दिन व्यतीत हो जाने के कारण उस पर ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब ऐसा कीजिए किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए। मैं तुरन्त अपनी थैली खोलकर आपका ऋण चुका दूँगा। लक्ष्मण के मुख से ऐसे कटु बचनों को सुनकर परशुराम ने फरसे को सँभालकर हाथ में पकड़ लिया। ऐसा दृश्य देखकर सभा हाय-हाय चिल्लाने लगी। लक्ष्मण निर्भीकता से बोले हे भूगुवंशज परशुराम |

आप मुझे बार-बार फरसा दिखा रहे हैं और है राजाओं के शत्रु मैं आपको ब्राह्मण समझकर बार-बार युद्ध करने से बचा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि आपको युद्धभूमि में पराक्रमी योद्धा कभी नहीं मिले। इसलिए हे ब्राह्मण देवता! आप अपने घर में ही अपनी वीरता दिखाकर महान्‌ बन रहे हो। लक्ष्मण के मुख से ऐसे वचन सुनते ही सभा में उपस्थित सभी लोग ‘अनुचित है, अनुचित है।’ ऐसा कहने लगे। तब श्रीराम ने आँखों से इशारा करके लक्ष्मण को और अधिक बोलने से रोक दिया। लक्ष्मण के आहुति के समान उत्तरों से परशुराम की क्रोध रूपी अग्नि को प्रचण्ड होता देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीराम ने शीतल जल के समान वचन बोले।


Class 10 Hindi Chapter 2 Question Answer NCERT

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प्रश्न 1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए?

उत्तर – धनुष टूटने पर जब परशुराम ने क्रोध प्रकट किया, तब लक्ष्मण ने निम्नलिखित तर्क दिए

  • हम तो इस धनुष को अन्य धनुषों के समान साधारण धनुष समझ रहे थे।
  • मेरी समझ के अनुसार तो सभी धनुष एक समान ही होते हैं।
  • यह धनुष तो पुराना होने के कारण श्रीराम के छूने मात्र से ही टूट गया। इसमें उनका कोई दोष नहीं।
  • हम धनुष को तोड़ने में लाभ-हानि नहीं देखते। इसमें श्री रामचंद्र जी का कोई दोष नहीं है।
  • बचपन में हमसे कितने धनुष टूटे, परंतु आपने उन पर कभी क्रोध नहीं किया। इस विशेष धनुष पर आपकी क्या ममता है?

प्रश्न 2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं, उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – राम स्वभाव से कोमल और विनयी हैं। उनके मन में बड़ों के प्रति श्रद्धा और आदर है। वे गुरुजनों के सामने झुकना अपना धर्म समझते हैं। वे महाक्रोधी परशुराम के क्रुद्ध होने पर भी स्वयं को उनका दास कहते हैं। इस प्रकार वे परशुराम का दिल जीत लेते हैं। लक्ष्मण राम से एकदम विपरीत हैं। वे बहुत उग्र और प्रचंड हैं। उनकी जुबान छुरी से भी अधिक तेज है।

वे व्यंग्य-वचनों से परशुराम को छलनी-छलनी कर देते हैं। उनकी उग्रता और कठोर वचनों को सुनकर न केवल परशुराम भड़क उठते हैं बल्कि अन्य सभाजन भी उन्हें अनुचित कहने लगते हैं। वास्तव में राम छाया है तो लक्ष्मण धूप। राम शीतल जल हैं तो लक्ष्मण आग।

प्रश्न 3. लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।

उत्तर – मेरे अनुसार लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का सबसे अच्छा अंश निम्नलिखित है:

लक्ष्मणः हे मुनि! धनुष तोड़ने में हम किसी लाभ-हानि की चिंता नहीं करते। और यह धनुष तो छूते ही स्वयं टूट गया अतः आपका हम पर क्रोध करना सर्वथा अनुचित है।

परशुराम: हे दुष्ट बालक! तू मुझसे तथा मेरे स्वभाव से परिचित नहीं है। मैं अत्यंत क्रोधी हूँ। मैं अब तक तूझे बालक मानकर ही तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। और तू मुझे सिर्फ एक साधारण मुनि समझता है।

लक्ष्मण: हे मुनि! आप स्वयं को बहुत योद्धा मान रहे हैं। और मुझे बार-बार अपना फरसा दिखाकर डराने का प्रयत्न कर रहे हैं। आप फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। हम भी कुम्हड़ा के बतिया के समान कोमल बालक नहीं है जो आपकी धमकियों से डर जाएँगे। आपके वचन ही अत्यंत कठोर हैं आपको धनुष-बाण और फरसे की कोई जरूरत नहीं।

प्रश्न 4. परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए –

बाल ब्रह्मचारी अति कोही, विस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।

भुजबल भूमि भूप विनु कीन्ही। विपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।

सहसवाहुभुज छेदनिहारा। परसु विलोकु महीपकुमारा।।

मातु पितहि जनि सोचवस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

उत्तर – परशुराम ने अपने विषय में चौपाई में कहा- मैं, बाल ब्रह्मचारी और स्वभाव से प्रचंड क्रोधी हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का विश्व प्रसिद्ध घोर शत्रु हूँ। मैंने अपने भुजबल से अनेक बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया है। मैंने अनेक बार पृथ्वी को जीतकर उसे ब्राह्मणों को दान में दे डाला। मेरा फरसा बड़ा भयानक है। अतः हे राजकुमार (लक्ष्मण)! सहस्र भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख। मेरा फरसा बहुत ही भयानक है। हे राजकुमार लक्ष्मण! तू मुझसे भिड़कर अपने माता-पिता को चिंता में मत डाल! अर्थात् अपनी मृत्यु को बुलावा मत दे क्योंकि मेरा यह भयंकर फरसा गर्भों में पल रहेशिशुओं तक का नाश कर चुका है।

प्रश्न 5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?


उत्तर – 
लक्ष्मण ने किसी भी वीर योद्धा की विशेषताओं के बारे में कहा था कि – वीर योद्धा व्यर्थ ही अपनी वीरता की डींगे नहीं हाँकते बल्कि युद्ध भूमि में युद्ध करते हैं। अपने अस्त्र-शस्त्रों से वीरता के जौहर दिखाते हैं। शत्रु को सामने पाकर जो अपने प्रताप की बातें करते हैं वो तो कायर होते हैं।

प्रश्न 6. साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर – साहस और शक्ति मानव मात्र के लिए सद्गुण हैं जो अत्यंत आवश्यक हैं। अगर इनके साथ विनम्रता का मिलन हो जाए तो क्या कहना। अक्सर साहस और शक्ति के प्रदर्शन में विनम्रता छूट जाती है। इसे साहस और शक्ति का विरोधी मान लिया जाता है परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। साहस और शक्ति विनम्रता के साथ ही प्रशंसनीय हैं।

प्रश्न 7. भाव स्पष्ट कीजिए-


(क) बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन पूँकि पहारू।।

(ख) इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देखि कुठारू सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

(ग) गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

उत्तर –

(क) लक्ष्मण हँसकर कोमल वाणी में बड़बोले परशुराम से बोले- अहो मुनिवर! आप तो माने हुए महायोद्धा निकले। आप मुझे बार-बार कुल्हाड़ी इस प्रकार दिखा रहे हैं मानो फूंक मारकर पहाड़ उड़ा देंगे। आशय यह है कि परशुराम का गरज-गरजकर अपनी वीरता का गुणगान करना व्यर्थ है। उनकी वीरता खोखली है। उसमें कोई सच्चाई नहीं।

(ख) कवि ने परशुराम के झूठे अभिमान को काव्य रूढ़ि के माध्यम से स्पष्ट किया है। समाज में पुरानी युक्ति है कि कुम्हड़े के छोटे फल की ओर तर्जनी अंगुली से संकेत करने भर से वह मर जाता है। लक्ष्मण कुम्हड़े के कच्चे फल जैसे कमजोर नहीं थे जो परशुराम की धमकी मात्र से भयभीत हो जाते। लक्ष्मण ने यदि उनसे अभिमानपूर्वक कुछ कहा था तो वह उनके अस्त्र-शस्त्र और फरसे को देखकर कहा था।

(ग) प्रस्तुत काव्यांश का भाव है कि जिस प्रकार सावन के अंधे को चारों ओर हरा-ही-हरा दिखाई देता है, वैसे विजय के मद में चूर व्यक्ति को सभी वीर योद्धा तुच्छ और निर्बल नजर आते हैं। परिणामस्वरूप वह अपने से ताकतवर शत्रु को पहचान कर भी नहीं पहचान पाता है।

प्रश्न 8. पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा सौंदर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।

उत्तर – तुलसीदास के पठित पाठ के आधार पर उनकी भाषागत विशेषताओं पर दस पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अवधी भाषा का प्रयोग किया है।

(2) कवि ने दोहा-चौपाई छंद का सुंदर प्रयोग किया है।

(3) दो चौपाइयों के बाद एक दोहे का क्रम अत्यंत सुंदर बन गया है।

(4) भाषा में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग सुंदर है।

(5) भाषा अलंकारों से सुसज्जित है।

(6) छंद में मात्राओं के बंधन का पूरा निर्वाह हुआ है।

(7) गेयता का गुण विद्यमान है।
(8) संवादात्मक शैली होने के कारण प्रस्तुत पठित अंश में नाटकीयता का समावेश है।

(9) ओजगुण एवं वीर रस है।
(10) भाषा विषयानुरूप, अर्थगांभीर्य युक्त एवं प्रभावशाली है।

प्रश्न 9. इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर–  प्रस्तुत पद के अध्ययन से पता चलता है कि लक्ष्मण के कथन में गहरा व्यंग्य छिपा हआ है। लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं। कि बचपन में हमने ऐसे कितने ही धनुष तोड़ डाले तब किसी ने कोई क्रोध नहीं किया। श्रीराम ने तो इस धनुष को छुआ ही था कि यह टूट गया। परशुराम की डींगों को सुनकर लक्ष्मण पुनः कहते हैं कि हे मुनि, आप अपने आपको बड़ा भारी योद्धा समझते हैं और फूंक मारकर पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। हम भी कोई कुम्हड़बतिया नहीं कि तर्जनी देखकर मुरझा जाएंगे।

आप ये धनुष-बाण व्यर्थ ही धारण किए हुए हैं क्योंकि आपका तो एक-एक शब्द करोड़ों वज्रों के समान है। लक्ष्मण जी व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि आपके रहते आपके यश का वर्णन भला कौन कर सकता है? शूरवीर तो युद्ध क्षेत्र में ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं तथा कायर अपनी शक्ति का बखान किया करते हैं। परशुराम के शील पर पुनः व्यंग्य करते हुए लक्ष्मण जी कहते हैं कि आपके शील को तो पूरा संसार जानता है। आप तो केवल अपने घर में ही शूरवीर बने  फिरते हैं, आपका किसी योद्धा से पाला नहीं पड़ा।

प्रश्न 10. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लाखए।


(क) बालकु बोलि बधौं नहि तोही।

(ख) कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।

(ग ) तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
बार बार मोहि लागि वोलावा।

(घ) लखन उत्तर आहुति सरिस भृगुवरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥


उत्तर –
 (क) ‘ब’ और ‘ह’ की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है – (वज्र के समान वचन।)


(ख) उपमा – कोटि कुलिस

अनुप्रास – कोटि कुलिस।


(ग) उत्प्रेक्षा – तुम मानो काल को हाँक कर ला रहे हो।

पुनरुक्ति प्रकाश – बार-बार।


(घ) उपमा – लखन उत्तर आहुति सरिस
जल सम वचन। (वचन जल के समान)

रूपक – भृगुबर कोपु कृसानु (क्रोध रूपी आग)

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 11. “सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो, तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत-से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।” आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात को पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव के लिए नहीं होता, बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।

उत्तर

पक्ष– जीवन में अपने अधिकारों की माँग के लिए क्रोध बहुत ज़रूरी है। इससे अन्याय का मुकाबला किया जा सकता है। क्रोध भी एक भाव है जिसका उचित अवसर पर प्रयोग सकारात्मक होता है। किसी के प्रति अन्याय को रोकना या अपने अधिकार के लिए क्रोध करना क्रोध का सकारात्मक रूप है।

विपक्ष – ज़रूरी नहीं कि क्रोध धारण कर के ही अपने अधिकारों की माँग पूरी होती हो। कभी-कभी शांत स्वभाव भी व्यक्ति को उसके अधिकार दिलाने में सहायक होता है। क्रोध एक अवगुण है। यह विवेक के नाश का कारण माना जाता है। क्रोध एक ऐसा शत्रु है, जो मनुष्य को नष्ट कर देता है। यह शरीर और मन को बुरा बना देता है। क्रोध में आकर व्यक्ति अन्याय भी कर देता है। क्रोध मनुष्य को अहंकारी बना देता है।

प्रश्न 12. संकलित अंश में राम का व्यवहार विनयपूर्ण और संयत है, लक्ष्मण लगातार व्यंग्य वाणों का उपयोग करते हैं और परशुराम का व्यवहार क्रोध से भरा हुआ है। आप अपने आपको इस परिस्थिति में रखकर लिखें कि आपका व्यवहार कैसा होता।

उत्तर (i) राम के रूप में मेरा व्यवहार– संकलित अंश में प्रस्तुत परिस्थितियों में मेरा व्यवहार निश्चित रूप से नम्रतापूर्ण व अनुशासित होता। मैं अपने भाई को भी समझाता कि बड़ों के साथ मर्यादा में रहकर बातें करनी चाहिए। मैं उस तथ्य को स्वीकार करता, जिसके फलस्वरूप परशुराम क्रोधित हो रहे थे। बड़ों का सम्मान करना मेरा पुनीत कर्तव्य है। मैं अपने छोटे भाई को भी समझाता कि बड़ों का सम्मान करना चाहिए।

(ii) लक्ष्मण के रूप में मेरा व्यवहार– लक्ष्मण के रूप में मेरा व्यवहार न तो बहुत विनयपूर्ण होता और न ही व्यंग्यपूर्ण। मैं मध्यम मार्ग अपनाकर अपने विचार रखता। मैं उस प्रसंग को ध्यान में रखता, जिसके फलस्वरूप शिव धनुष तोड़ा गया। मैं विनयपूर्वक अपना पक्ष उनके सामने रखता। बड़ों के साथ सम्मान से बातें करना अच्छी बात है। हर स्थान पर ईंट का जवाब पत्थर नहीं होता है। मैं उनसे व्यंग्यपूर्ण बातें नहीं करता, व्यंग्यपूर्ण व्यवहार अपमानजनक होता है। । मैं परशुराम के श्रद्धेय व्यक्तित्व को नकारता नहीं।

(iii) परशुराम के रूप में मेरा व्यवहार– अपने इष्ट की प्रिय वस्तु के टूट जाने पर मुझे क्रोध अवश्य आता, परंतु मैं उस क्रोध की अभिव्यक्ति मर्यादा में रहकर करता क्योंकि मेरे विचार में मर्यादाएँ केवल छोटों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी आवश्यक हैं। अतः मर्यादित आचरण करके पहले मैं उस तथ्य का पता लगाता, जिसके कारण शिव धनुष-खंडन की घटना घटित हुई।

यह विचार करके कि धनुष का टूटना एक शुभ घटना थी और धनुष का खंडन करने वाले स्वयं विष्णु के अवतार श्री राम थे, मैं श्री राम का सम्मान करता और उनको शुभकामनाएँ देता। ये शुभकामनाएँ इसलिए भी होती कि उन्होंने धनुष का खंडन करके राजा जनक को पुत्री के विवाह की चिंता से मुक्त कर दिया था।

प्रश्न 13. अपने किसी परिचित या मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ लिखिए।


उत्तर
 – मेरे एक परिचित बहुत ही सुशील व विनम्र हैं। वे सदा सबकी सहायता करने के लिए तैयार रहते हैं। वे अपने माता-पिता व बड़ों का सम्मान करते हैं, उनके द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करते हैं। अपने साथियों के साथ मिल-जुलकर रहते हैं। गरीबों तथा अनाथों के लिए उनके मन में दयाभाव है। वे हमेशा उनकी मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। उनमें स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा हुआ है।प्रश्न 14. दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए-इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखिए।

उत्तर – एक बच्ची-विल्मा रुडोल्फ़ का जन्म टेनेसस के एक गरीब परिवार में हुआ। 14 साल की उम्र में वह पोलियों का शिकार हो गई। डॉक्टरों ने उसे यहाँ तक कह दिया कि वह जिंदगी भर चल-फिर नहीं सकेगी, किंतु वह कुशल धाविका बनना चाहती थी। डॉक्टरों के मना करने पर भी उसने ब्रेस को उतारकर पहली दौड़ प्रतियोगिता में भाग लिया, किंतु वह सबसे पीछे रही। उसके बाद दूसरी-तीसरी अन्य दौड़ प्रतियोगिताओं में सबसे पीट रही, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। वह अपनी त्रुटियों को दूर करती रही और सन् 1960 के ओलंपिक में वह दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनी।

प्रश्न 15. उन घटनाओं को याद करके लिखिए, जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।


उत्तर
 – (i) हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता है। पिता तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं। माँ बच्चों की देखभाल तथा घर का सारा काम करती हैं। दिनभर की थकी माँ जब रात को आराम करने लगतीं, तो पिता किसी-न-किसी बात पर झगड़ा कर देते। बच्चे सहम जाते। एक दिन उनके बेटे ने मुझसे कहा कि वह ढंग से पढ़ नहीं पाता।

पिता जी बिना किसी कारण माँ से झगड़ने लगते हैं। मैंने उसे समझाया कि तुम अपने पिता से अकेले में बात करके देखो। बेटे ने पिता से कहा कि वे माँ पर अत्याचार न करें। इसका उसपर बुरा असर पड़ रहा है। यदि पिता नहीं माने, तो वह घर छोड़कर चला जाएगा। यह सुनकर उसके पिता स्तब्ध रह गए। फिर उन्होंने कभी अपनी पत्नी पर अत्याचार नहीं किया।


(ii) मेरे मित्र के घर जो लड़की काम करती है, उसके साथ बुरा व्यवहार किया जाता था। उसे खाने में रूखा-सूखा तथा बचा हुआ खाना दिया जाता था। उसे आदेश दिया गया था कि वह काम समाप्त कर ज़मीन पर बैठेगी, चाहे सर्दी हो या गरमी। उसके खाने के बरतन भी अलग रखे हुए थे। जब भी मैं उसके घर जाता, मुझे बहुत अजीब लगता था।जो सबके लिए खाना बनाती है, घर का सारा काम करती है; उसके प्रति नफ़रत की भावना क्यों? मैंने अपने मित्र से बात की।

उसे समझाया कि हमें गरीबों पर अत्याचार नहीं करना चाहिए। धीरे-धीरे उसने अपने घर के बड़ों को समझाया। कभी-कभी उसे विरोध भी करना पड़ा। आज वह लड़की परिवार के एक सदस्य की तरह सुख से रह रही है।

प्रश्न 16. अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?

उत्तर – अवधी भाषा प्रचलित रूप से आजकल लखनऊ, अयोध्या, फैजाबाद, सुलतानपुर, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, जौनपुर, मिर्जापुर, फतेहपुर तथा आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती है।

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